Lako Bodra-Insititue of Anicient culture and science society
(1919-1986)
‘हो’ समाज के सांस्कृतिक धार्मिक एवं सामाजिक सर्वागीण विकास एवं कल्याण के निमित दान स्दरूप दिया। इसी जमीन पर एटेएः तुर्तुङ अखाड़ा की स्थापना किया गया और सामाजिक एवं शैक्षिणिक विकास का कार्य आरम्भ किया गया।
आदि संस्कृति विज्ञान संस्थान की स्थापना
1950 के दशक के शुरूआत में पूरे सिंहभूम के हो समुदाय में भाषा, साहित्य धर्म के प्रति लोगों में चेतना की लहर उमड़ने लगी थी गुरू लाको बोदरा का प्रभाव बढ़ता जा रहा था अन्य लोगों के द्वारा बारंबार जोड़ापोखर में आते रहने का निवेदन को देखते हुए जमशेदपुर में बीमा बानरा जी के घर में एक बैठक का आयोजन किया गया और उस बैठक में सलाह मशविरा के पश्चात् जोड़ापोखर में आश्रम की स्थापना का निर्णय लिया गया।
जोड़ापोखर में उसी गाँव के श्री केरसे मुन्डा तथा भहाती मुन्डा पिता सुरसिंह मुन्डा ने स्वेच्छा से 2 बीघा 10 कट्टा सात धूर (एक एकड़ बीस डिसीमल) जमीन 1954 ई0 में संस्था के नाम की।
‘हो’ समाज के सांस्कृतिक धार्मिक एवं सामाजिक सर्वागीण विकास एवं कल्याण के निमित दान स्दरूप दिया। इसी जमीन पर एटेएः तुर्तुङ अखाड़ा की स्थापना किया गया और सामाजिक एवं शैक्षिणिक विकास का कार्य आरम्भ किया गया। इस संस्था के कार्यो को ठोस रूप देने के लिए गाँव-गाँव के घर-घर से दान स्वरूप आर्थिक सहायता स्वेच्छा से प्राप्त होने लगी। जमीन के उस भू भाग का पंजीकरण सन् 1955 ई0 में ए0 डी0 सी0 चाईबासा सिंहभूम द्वारा किया गया और ततपश्चात् सेटलमेन्ट में भी सभी प्लोट न0 (1400,1401, 770, 1369, 1398, 1399) एटेएः तुर्तुङ अखाड़ा के नाम से ही दर्ज किया गया तथा उक्त भू खण्ड की मालगुजारी भी संस्था के लोगों के द्वारा लगातार दिया जा रहा है।
एटेएः तुर्तुङ अखाड़ा में धार्मिक शैक्षणिक सामाजिक गतिविधियों के साथ-साथ वहाँ की कमिटी के द्वारा वर्ष में एक वार्षिक अधिवेशन तथा प्रतिनिधि गोष्टी का भी आयोजन होता रहा है। बोदरा जी अपने परिवार एवं शिष्यों के साथ संघ आश्रम में ही रहने लगे। चूँकि वे वैध, सोका देवाँ आदि के रूप में काफी ख्याति आर्जित कर चुके थे अतः विभिन्न बिमारियों से ग्रसित लोग उनके पास इलाज के लिए आने लगे। छोटे बड़े परिवार के लोग मुन्डा-मानकी, विधायक-संसद, शिक्षित-अशिक्षित, स्त्री-पुरूष सभी अपनी समस्यों के समाधान के लिए आश्रम में आने लगे। लोगों की समस्यायों का समाधान भी होता, लोग संतुष्ट होते और इस तरह बोदरा जी में लोगों की आस्था और विश्वास दिन-ब-दिन बढ़ने लगी। एटेएः तुर्तुङ अखाड़ा का पंजीयन-सोसाइटिज रजिस्ट्रेशन एक्ट 21, 1960 के अन्तर्गत 13 अप्रैल 1976 महानिरीक्षक-निबन्धन, बिहार से कराया गया पर संस्था का नामकरण आदि संस्कृति एवं विज्ञान संस्थान रखा गया।
इस संस्था की नियमावली में ‘हो’ समाज के लिपि (वारङ क्षिति) भाषा, साहित्य सामाजिक, धार्मिक, नैतिक विकास के साथ-साथ शोध कार्यो, बेरोजगार युवक-युवतियों की प्रशिक्षण द्वारा स्वालम्बी बनाने आदि विषयों पर बल दिया गया। उस समय जो कमिटी गठित की गई थी, उसमें निम्नलिखित सदस्य थे-
संख्या |
नाम |
पद |
1 |
सर्वश्री शम्भुचरण गोडसरा (डुमुरिया मुसाबनी) |
अध्यक्ष |
2 |
श्री कोलाय बिरूवा (डेमकापादा) |
अध्यक्ष |
3 |
श्री चरण हाँसदा (तालाबुरू) |
उपाध्यक्ष |
4 |
श्री बलराम पाठपिंगुवा (धनसारी) |
महासचिव |
5 |
श्री उपेन्द्र पाठपिंगुवा (मुर सई) |
सचिव |
6 |
श्री मजेन्द्र नाथ बिरूवा (टोन्टो) |
संयुक्त सचिव |
7 |
श्री सुशील सिंकु (बलियाडी) |
कोषाध्यक्ष |
8 |
श्री लाको बोदरा (पाहसेया) |
सदस्य |
9 |
श्री बीमा बान्डरा (राइयुहातु) |
सदस्य |
10 |
श्री सुरसिंह तायसुम (जोड़ापोखर) |
सदस्य |
11 |
श्री कृष्णा चन्द्र सिरका (चीमीसाई) |
सदस्य |
12 |
श्री सेलाय बोयपाई (बरदाडीह) |
सदस्य |
13 |
श्री सलुका सामाड (गेलेया लोर) |
सदस्य |
14 |
श्री साधु चरण बिरूवा (टोन्टो) |
सदस्य |
15 |
श्री सुखलाल बोदरा (लान्डू साई) |
सदस्य |
16 |
श्री सुरेन्द्र नाथ बिरूवा (टेंगरा) |
सदस्य |
17 |
श्री अनु हेम्ब्रम (पिचुवा) |
सदस्य |
18 |
श्री सुखलाल डुबराज मानकी (सिन्दुरी) |
सदस्य |
19 |
श्री केरसे मुन्डा (जोड़ापोखार) |
सदस्य |
जोड़ापोखर स्थित आश्रम में चहल बढ़ गई थी। लिपि की पढ़ायी गाँव-गाँव में रात्रि पाठशालों में होने लगी। जन सहयोग से आश्रम में बोदरा साहब के लिए जीप एवं एक कार खरीदी गई, जिससे वे गाँवों का भ्रमण करते लोगों की समस्यों का समाधान करते । जगह जगह लोग बैठकों का आयोजन करते और उन्हें आग्रह पूर्वक बुलाते।
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आदि संस्कृति विज्ञान संस्थान की शाखाओं का गठन विभिन्न जगहों में किया गया तथा उड़ीसा में भी कई स्थानों पर गठन किया गया। समाज में एक लहर उठी लोगों को महसूस हुआ एक नये समाज की संरचना हो रही है। सुरेन्द्र नाथ बिरूवा(विधायक) श्री मंगल सिहं लामाय (विधायक)
श्री बागुन सुम्बरूई (सांसद) श्री कोलाय बिरूवा (सांसद) आदि उनके सम्पर्क में रहे। महाविधालयों में अध्यनरत छात्र छात्राएं भी वारङ क्षिति लिपि की व्यावहारिकता को जानने समक्षने आश्रम आते। उस समय से ही श्री देवेन्द्र नाथ चाम्पिया (भू0. पू. उपाध्यक्ष बिहार विधान सभा) भी लिपि के समर्थक हो गए थे और लिपि के प्रचार प्रसार में समर्पित भावना से जुट गए थे।
इतना ही नहीं आदि संस्कृति विज्ञान संस्थान जोड़ापोखर में समाज के बदलाव के लिए नाटकों का भी सहारा लिया गया।
प्रति वर्ष वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर गुरू लाको बोदरा के द्वारा लिखित नाटक “शहर होरा” का मंचन उनके ही निर्देशन में सफलता पूर्वक किया जाता रहा और उस नाटक के कलाकार
सिहंभूम के ‘ हो’ समुदाय के लोगों में काफी लोकप्रिय एवं चर्चित हो गए थे।
उन कलाकारों में श्री प्रधान पुरती (करलाजुई) रेगो बूड़ीउली (कुदापी) दामु लागुरी (बड़ा नान्दाः) रोयाः कोड़ाः (बड़ा नान्दाः) तुराम पुरती (जोड़ा) मुकरू बान्डरा (रायूहातू) प्रधान गगाराई (पी बालजुई) कोलम्बस लागुरी (पुखुरी पी) मुचिया सिंकू (मालुका) सुरेश हेस्सा, जयपाल हेस्सा (कोन्दोवा) आदि आज भी काफी लोकप्रिय हैं।
कई-कई लोग समर्पित एवं सेवा भावना से घर द्वारा त्याग कर आश्रम में ही रह कर समाज सेवा में दिन रात लगे रहे, जिनमें श्री चरण हाँसदा (तालाबुरू) रेंगो बुड़ीउली (कुदापी) कुमारी जाँऊई गागराई (बुरू बालजुई) मुचिया सिंकू (मालुका) आदि और भी लोग थे।
उनलोगों के प्रयास से आदि संस्कृति विज्ञान संस्थान काफी लोकप्रिय एवं विकास कार्यो की ओर अग्रसर होता गया।
आदि संस्कृति विज्ञान संस्थान के सम्बन्ध में 1975 ई0 में निकाले गए एक निवेदन की भाषा से – संस्था के कार्यो को, एवं लोगों की मनोभावनाओं की स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह कभी अकेला रह नहीं सकता और मौन भी नहीं रह सकता । उसे जीवन यापन के लिए सहयोग और विनिमय की आवश्यकता पड़ती है। यह आवश्यकता वह भाषा के द्वारा पूर्ति करता है, अपने विचार भी इसी से भली भाँति प्रकट कर सकता है। भाषा की मनुष्य का सबसे बड़ा श्रोत और साधन है जिससे वह सामाजिक सहयोग और पारस्पारिक मैत्री स्थापित करता है।
भाषा का सम्बन्ध लिपि से अटूट् है। वास्तव में भाषा लिपि का वाहन है, लिपि की सहायता से भाषा की प्रगति होती है और वह जगत के व्यवहार का मूल बनती है। भाषा की प्रगति एवं साहित्य का विकास होने पर ही विचार और अभिव्यक्ति में सुगमता होती है भाषा के द्वारा ही हम पारस्परिक भावों एवं विचारों का अदान-प्रदान करते हैं।
मनुष्य के विभिन्न कार्यकलापों और उनके अनुभवों और ज्ञान संचित करने के लेखन कला की आवश्यकता है। लेखन कला भी एक कला है। यह कला भी अन्य कलाओं की भाँति सीखी जाती है। अपनी मातृभाषा का अनादर कोई भी व्यक्ति नहीं कर सकता। कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभाषा के समान ही दूसरी भाषा सीख सकता है, परन्तु उत्पन्न नहीं कर सकता।
भाषा की विशेषता गुण और ज्ञान का संचय एवं उसकी विशेष ध्वनियों को लिपि बध्द अपनी लिपि से ही सम्भव है। भाषा को उन्नत बनाना और उससे लिपि-बध्द साहित्य का सृजन समाज का कर्तव्य है।
आदि-निवासियों के सर्वागीण विकास के लिए एक सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था “एटेःए तुर्तुङ” के नाम से झींकपानी (सिंहभूम ) कार्य कर रही है। यह संस्था किसी एक व्यक्ति विशेष का नहीं वरन् सभी आदिवासी भाई एवं बहनों का है।
सामाजिक एवं सांस्कृतिक सुधार के अतिरिक्त यह संस्था आदि लिपि के माध्यम से विगत 21 वर्षो से आदिम भाषा का विकास एवं मातृभाषा में शिक्षा का प्रचार करने में और लिपि बध्द साहित्य के निर्माण में कार्यरत एवं प्रयत्नशील है।
इस संदर्भ में इस संस्था का कहना है कि आदिम भाषा अपने पूवर्जो की भाषा का विकास आदि लिपि में करना और आदि ज्ञान का प्रसार कर आदिम जातियों में शिक्षा के प्रति अभिरूचि पैदा करना । आदिम भाषा जिसे हम भूल से गए हैं अथवा जीर्णा शीर्णा अवस्था में पड़ी है। अब “आदि लिपि” की सभी मानव समुदाय जाति धर्म से विभेद रहित पढ़ लिख सकते हैं और उससे ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
आइये! भाइयों एवं बहनों, हम आदिम ज्ञान और आदिम भाषा से परिचित होवं। हम सभी मिलकर इस महान शुभकार्य में हाथ बँटायें और अपने समाज, मातृभाषा एवं सभ्यता और संस्कृति को विकसित कर गौरवान्ति होवें।
निवेदन – श्रीमति बसुमति अल्डा, सर्वश्री बीमा बानरा, सुरेन्द्रनाथ बिरूवा, सुरेन्द्रनाथ सिंकू, साधु चरण बिरूआ, माधो गागराई, लान्दू बारी, चन्द्रमोहन गागराई, डिबु पाड़ेया, सुशील सिंकू, जन्डुका जारिका, गोविन्दचन्द्र बिरूवा, सरजोम तिरिया, चुम्बरू तमसोय, गंगाराम बोबोंगा, शम्भूचरण गोडसोरा, कोलाय बिरूवा, कृष्णक प्र. चाकी, विश्वनाथ बोदरा, रूपसिंह पिंगुवा, शिवलाल बोदरा, मोरा हो देवगम, जगमोहन हेम्ब्रम, कुँवर राय बोदरा, मंगलसिंह लामाय, कृष्ण सिरका, श्यामलाल हेम्ब्रम, शंकर लाल गागराई, बालगोविन्द लामय, दुलयचन्द्र मुण्डा, बिरेन मानकी, बी. पिंगुवा।
इस तरह बुध्दिजीवियों, समाज सेवियों, के प्रयोसों से झींकपानी स्थित आश्रम (आदि संस्कृति विज्ञान संस्थान) शैक्षणिक आध्यात्मिक स्थल में परिवर्तित हो गया था। लिपि का प्रचार जोर शोर से होने लगा। लोगों में शिक्षा साहित्य के प्रति रूचि उभरने लगी।
पर कुछ सत्ता लोलुप राजनेताओं की नजर उस पर पड़ी तो वे गुरू लाको बोदरा की लोकप्रियता से घबरने लगे और उन्हें नीचा दिखाने, उन्हें बदनाम करने के लिए उन पर तरह-तरह के आरोप लगाने लगे। पर लाको बोदरा अपने कार्यो में लगे रहे शिक्षा के साथ-साथ लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए लोगों को सिलाई कढ़ायी तथा अन्य कुटीर उधोगों का प्रशिक्षण भी आश्रम में दिया जाने लगा। वे ‘हो’ समाज के इतिहास पर शोध और खोज कर रहे थे अपने भाषाओं मे हो समाज की अच्छाइयों के साथ-साथ वे हो समाज में जन्मने के लिए लोगों को गौरव महसूस करने की सलाह देते थे। आदि संस्कृति एवं विज्ञान संस्थान की ओर से ही वारङ क्षिति लिपि को संतिधान के अष्टम सूची में सम्मिलित किए जाने की माँग की जाने लगी। गुरू कोल लाको बोदरा की संगठन क्षमता विध्दतासे प्रभावित हो कर अन्य समाज के विव्दान, भाषा विदू, साहित्यकार आदि उनसे मिलने जोड़ापोखर आने लगे वे उनसे आध्यत्मिक दर्शन सांस्कृतिक एवं साहित्यिक पहलुओं पर विचार विमर्श करते।
‘हो’ समाज में मनाए जाने वाली पर्व – त्योहारों को निश्चित तिथियों में एक रूपता से मनाने की घोषण उन्होंने 1955 में ही कर दी। उनके अनुयायी निश्चित तिथियों में, परम्परागत तरीकों से पर्व त्योहारों को मनाने लगे। आदि संस्थान एवं विज्ञान केन्द्र जोड़ापोखर में उन्होंने कम खर्च पर ‘ सामूहिक विवाह’ भी आरम्भ करवा दिया।
इसके अलावे आदि संस्कृति संस्थान विज्ञान संस्थान में एक छापा खाना (Printing Press) “अंङगो इपिल” भी काफी दिनों तक चलाया गया जिसमें वारङ क्षिति लिपि, हिन्दी अंग्रजी भाषा के माध्यम से काफी पुस्तकों की भी छापा गया और प्रचार प्रसार का कार्य भी किया गया।
इस तरह समाज की कुरीतियों को जड़ से उन्मूलन की दिशा में आदि संस्कृति एवं विज्ञान संस्थान तत्परता के साथ प्रयासरत था और काफी हद तक सफलता के मुकाम भी तय कर ली।
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